Friday, May 14, 2021

आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो जाता है

 योग के पांच बहिरंग अंगों — यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार को अपने जीवन में अपनाने से पांचों ज्ञानेंद्रियों की क्षमताओं का विकास होता है । इससे हम अपने स्वभाव में आ जाते हैं । जो हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं, वही हमारा स्वभाव है (इसी को धर्म भी कहा गया है), उसी अपेक्षित भाव में स्थित होना आत्मा में स्थित होना है। इस उत्कर्ष की स्थिति में साधक को संमस्त सृष्टि में परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं ।इस साधना की चरम स्थिति ‘ परमात्ममयता ‘ है । वहां सृष्टि नहीं रहती – परमात्मा ही परमात्मा रहता है–एक कवि के शब्दों में ‘जित देखूं तित श्याममयी है ।

इस प्रकार चक्रों के प्रभावित होने से ऊर्जा नीचे से ऊपर की ओर अर्थात्‌ मूलाधार से सहस्राधार चक्र की ओर बढ़ने लगती है । जब पृथ्वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में और वायु आकाश में लीन हो जाता है, तो भौतिक दृष्टि समाप्त हो जाती है और आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो जाता है । भूकुटि में स्थित शिव का तीसरा नेत्र खुल जाता है।जब क्षाधक सृहख्राधार में प्रवेश करता है, तो उसकी स्थिति बिलकुल बैसी ही होती है जैसी कि बूंद की सागर में प्रवेश करते समय होती है । बूंद तब बूंद नहीं रहती, सागर बन जाती है। उसी के बारे में वेद कहते हैं, ‘नेति’ ‘नेति’। वह अनुभव वर्णन से परे है।

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