Friday, May 14, 2021

आसन,मन,प्राणायाम,विचार,त्राटक,ध्वनि-योग,अजपा-जप,चक्रों पर ध्यान

 आसन करते हुए ध्यान पूर्णतया आसन पर लगाएं । शरीर के जिस अंग पर आसन का दबाव पड़े, उसी अंग पर मन स्थिर करें | इससे चित्त एकाग्र होने लगता है। आसन मन को एकाग्र करने का सरल साधन है। इससे शारीरिक स्वास्थ तो मिलता ही है, साथ ही मानसिक स्वास्थ्य और शक्ति भी मिलती है। आसन से वापस आने के बाद आराम की स्थिति में उससे मिले अनुभव को देखें।

मन और प्राण का बहुत घना संबंध है । चित्त की अस्थिरता के दो कारण हैं– एक वासना और दूसरा प्राण (श्वास) | इनमें से एक पर विजय मिल जाए तो दूसरे पर स्वयं ही मिल जाती है। जब मन को श्वास-क्रिया से जोड़ते हैं, तो मन श्वास को अंदर जाते और बाहर निकलते देखता रहता है और श्वास-प्रश्वास पर ही केंद्रित हो जाता है । धीरे- धीरे वह श्वास में ही लय हों जाता है।

मन को श्वास पर टिकाने से मन इंद्रियों और उनके विषयों से अलग हो जाता है। आंखें देखती नहीं; कान सुनते नहीं; नासिका गंध ग्रहण नहीं करती; रसना (जिह्ना) को स्वाद का ज्ञान नहीं होता; त्वचा अपना गुण-स्पर्श त्याग-सा देती है; मन में कोई विचार,कोई कल्पना नहीं उपजती। वहां न कोई इच्छा होती है और ना ही कोई चिंता । कोई कल्पना नहीं कर रहा, कोई चिंता नहीं और कोई इच्छा भी नहीं कर रहा । इस प्रकार मन इंद्रियों से, उनके विषयों से, विचार और कल्पना से भी हट जाता है

मन का स्वभाव जानें

किसी एक विषय पर टिके रहना मन को पसंद नहीं, जब इसे किसी एक वस्तु या विषय पर लगाया जाता है, तो यह भागकर दूसरे विचारों या विषयों पर चला जाता है ।बेकार के विचारों में पड़ जाता है । हर दिशा में घूमता है, बेलगाम घोड़े की भांति हर ओर भागता फिरता है। किसी एक विषय पर टिकना इसका स्वभाव नहीं।

मनको एकांत पसंद नहीं ।इसे तो देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्श करना अर्थात्‌ सभी इंद्रियों के विषय इसे पसंद हैं। इसके लिए कोई साथी, कोई सामान चाहिए ही।

मन बहुत गतिशील है । प्रकाश (Light) की गति तो ,86,000 मील प्रति सैकेंड है, पर मन की गति तो नापी नहीं जा सकती, इसको हर समय गति चाहिए।

मन वर्तमान में रहना नहीं चाहता, अब क्या हो रहा है, इस बात में इसकी रुचि नहीं । इसे तो भूतकाल और भविष्य ही पसंद हैं। आज और अब जो हो रहा है, उसमें तो वह सीमा में बंध गया जबकि बंदिश में रहना मन का स्वभाव नहीं । वर्तमान में तो इसका दम घुटता है, भूत और भविष्य में घूमने को तो बहुत स्थान हैं । क्योंकि ध्यान मन को एक दायरे में बांधता है, उसे दिशा दे देता है इसीलिए ध्यान वर्तमान में रहने की कला है।

मन इच्छाओं की उत्पत्ति करता है और यह काम हर समय होता रहता है। एक इच्छा पूरी हुई तो उसने अनेक इच्छाओं को जन्म दिया। इच्छाएं अनंत हैं और उनकी पूर्ति होना असंभव है । इच्छाओं की पूर्ति न होना या उनका दबाया जाना ही तरह-तरह के क्लेशों व दुखों का कारण बनता है।

मनुष्य के सुख-दुख का कारण मन व उसकी वृत्तियां हैं। किसी भी वस्तु का अच्छा या बुरा लगना मन की मान्यता के कारण ही है । मन झानेंद्रियों द्वारा ही बाह्य जगत की वस्तुओं व विषयों का आनंद लेता है । ज्ञानेंद्रियां पांच है – आंख, कान, नाक, रसना व त्वचा | उनके विषय देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद चखना, बोलना और छूना हैं | मन इंद्रियों के विषयों के रस लेता है। योग में मन को जीतने के लिए पहले इंद्रियों को साधन बनाते हैं, फिर मन को । इस प्रकार मन से ही मन को वश में करते हैं, जैसे कि कांटे से कांटा निकाला जाता है।

मन को साधने के लिए पूजा, कीर्तन, जप, हवन, यज्ञ, ज्ञान, कर्म, तप आदि बहुत साधन हैं, पर ध्यान इन सबमें श्रेष्ठ है। मन को साधना बहुत कठिन माना जाता है। कुछ दिनों में ही सफलता मिल जाए ऐसी बात नहीं । लगातार अभ्यास, बैराग्य व पक्के इरादे से इसे बड़ी आसानी से साधा जाता है । ध्यान मन की चाबी है। जितना ध्यान परिपक्व होता जाता है, उतनी ही मन की सफाई होती है। मन की परतें खुलती जाती हैं, मन के संस्कार धुलते जाते हैं और मन निर्मल बनता है। मनोविज्ञान के अचेतन मन (Unconcious mind), अवचेतन मन (Sub-Unconcious mind), चेतन मन (Concious mind) से ही ऊर्ध्वचेतन मन (Super-Unconcious mind) का विकास होता है।

ध्यान मन की शक्तियों को बरबाद होने से बचाता है, परेशान व अशांत मन को शांत करता है। इससे मन की एकाग्रता बढ़ती है। ध्यान से मन की उछल-कूद खत्म होती है, दौड़ बंद होती है। मन को विश्राम मिलता है ध्यान मन व बुद्धि की सोयी हुई शक्तियों को जगाता है। ध्यान की क्रिया बिलकुल वैसी है, जैसी कि एक विशेष तरह के शीशे की | आतिशी शीशा सूरज की बिखरी किरणों को एक ऐसी विशेष दिशा देता है, जिससे उसके सामने रखा-कपड़ा या कागज आदि वस्तुएं जलने लगती हैं | किरणें थीं पर केंद्रित नहीं थीं – बिखरी हुईं थीं। आतिशी शीशे ने उन किरणों को केंद्रित करके एक विशेष गुण से संपन्न बना दिया।

 एक व्यावहारिक प्रक्रिया 

ध्यान शब्द का प्रयोग हम लोग दिन में कई बार करते हैं, जैसे –जरा ध्यान से चलना कहीं ठोकर न लग जाये या कोई दुर्घटना न हो जाये। बच्चों से हम अक्सर कहते हैं — ‘ ध्यान लगाकर पढ़ो, तुम्हारा ध्यान तो खेल में है ।’ “काम तो खराब ही होगा, जब काम कहीं होगा और ध्यान कहीं तुम्हारा ध्यान कहां है?’ “देखकर नहीं चला जाता क्या?” आदि सवाल ध्यान को रोजमर्रा की प्रक्रिया बताते हैं। ध्यान का मतलब है, वर्तमान में रहना। वर्तमान में रहने से ही हम अपने हर काम को ठीक तरह से कर सकते हैं — ठीक सुन सकते हैं, ठीक बोल सकते हैं, ठीक सोच सकते हैं|

वर्तमान में रहने से ही हम उचित व सही निर्णय लें सकते हैं। जब हमारा काम ठीक होगा, तभी हम अपनी समस्या को उचित दिशा देकर सुलझा सकेंगे, ठीक निर्णय ले सकेंगे। तभी हम प्रसन्न भी रह सकेंगे। और जब यह प्रसन्नता बनी. रहेगी तो धीरे-धीरे आनंद का रूप ले लेगी।

आनंद में रहने का दूसरा नाम परमात्मा में रहना है । इसके लिए ध्यान में रहना आवश्यक है। इसी के अभ्यास के लिएं, योगियों, ऋषियों तथा महात्माओं ने अनेक विधियों की चर्चा की है। संसार में अनेक विधियां प्रचलित हैं। जिस विधि पर हमें विश्वास और श्रद्धा हो, और सबसे बढ़कर जिसकी हममें योग्यता हो (इसका निर्णय ‘ गुरु’ के हाथों में पूरी तरह से छोड़ना पड़ता है), वही हमारे लिए उचित है।

ध्यान हर एक के लिए परमावश्यक है | संन्यासी, गृहस्थी, विद्यार्थी, वकील, डॉक्टर दुकानदार, पुरुष, महिलाएं सबको ध्यान से लाभ मिलेगा। स्वस्थ लोगों के लिए भी और रोगियों के लिए भी यह जरूरी है | पूर्ण लगे या अधूरा प्रतिदिन 0-5 मिनट का ध्यान तो जरूर करना ही चाहिए।

ध्यान के संबंध में चंद बातें

1. ध्यान(Meditation) के लिए स्थान शुद्ध, हवादार, एकांत , विघ्नरहित हो । नित्य एक ही स्थान हो तो ज्यादा अच्छा है।

2. इसके लिए सर्वोत्तम समय ब्रह्ममुहूर्त है – सूर्योदय के ढाई घंटे पूर्व से सूर्य के प्रकट होने तक।

3. रात को सोने से पहले मुंह, हाथ, पैर धोकर कुछ मिनट का ध्यान बहुत लाभदायक है। मन शांत होगा। नींद अच्छी आएगी।

4. सिद्धासन व पद्मासन बहुत उत्तम हैं, नहीं तो सुखासन | खाना खाये तीन-चार घंटे न हुए हों, तो वज़ासन में बैठें। सिर का पिछला भाग, गर्दन व रीढ़ की हड्डी एक लाइन में हों । शरीर में तनाव न हो । दोनों हाथ ज्ञान-मुद्रा में घुटनों पर रखें। आंखें आराम से बंद। आसनो से दूर करे कमर और पीठ का दर्द

5. शरीर को स्थिर रखना है, चट्टान की तरह निश्चल | हाथ-पैर की स्थिति को बदलना नहीं, हिलना-डुलना नहीं, खुजलाना नहीं, मक्खी आदि भी नहीं उड़ाएं।

6. ध्यान में एक दिन का भी अवकाश न पड़े | नियम-पूर्वक प्रतिदिन ध्यान करें।

ध्यान साधना कैसे करे

1.आसन

आसन करते हुए ध्यान पूर्णतया आसन पर लगाएं । शरीर के जिस अंग पर आसन का दबाव पड़े, उसी अंग पर मन स्थिर करें | इससे चित्त एकाग्र होने लगता है। आसन मन को एकाग्र करने का सरल साधन है। इससे शारीरिक स्वास्थ तो मिलता ही है, साथ ही मानसिक स्वास्थ्य और शक्ति भी मिलती है। आसन से वापस आने के बाद आराम की स्थिति में उससे मिले अनुभव को देखें।

योगासनों का महत्व हमारे जीवन में

2. प्राणायाम

मन और प्राण का बहुत घना संबंध है । चित्त की अस्थिरता के दो कारण हैं– एक वासना और दूसरा प्राण (श्वास) | इनमें से एक पर विजय मिल जाए तो दूसरे पर स्वयं ही मिल जाती है। जब मन को श्वास-क्रिया से जोड़ते हैं, तो मन श्वास को अंदर जाते और बाहर निकलते देखता रहता है और श्वास-प्रश्वास पर ही केंद्रित हो जाता है । धीरे- धीरे वह श्वास में ही लय हों जाता है।

मन को श्वास पर टिकाने से मन इंद्रियों और उनके विषयों से अलग हो जाता है। आंखें देखती नहीं; कान सुनते नहीं; नासिका गंध ग्रहण नहीं करती; रसना (जिह्ना) को स्वाद का ज्ञान नहीं होता; त्वचा अपना गुण-स्पर्श त्याग-सा देती है; मन में कोई विचार,कोई कल्पना नहीं उपजती। वहां न कोई इच्छा होती है और ना ही कोई चिंता । कोई कल्पना नहीं कर रहा, कोई चिंता नहीं और कोई इच्छा भी नहीं कर रहा । इस प्रकार मन इंद्रियों से, उनके विषयों से, विचार और कल्पना से भी हट जाता है।

केवल श्वास में लय है | श्वास एक ऐसी वास्तविकता है, जिसे मन अनुभव कर रहा है। श्वास वर्तमान की, इस क्षण की सबसे बड़ी सच्चाई है। श्वास हमारे अंदर भी है और बाहर भी | श्वास के साथ अंदर जाते, बाहर जाते मन बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होने लगता है। इससे मन की गति भी सीमित हो जाती है| इससे श्वास के बराबर ही गति हो जाती है। मन इस समय किसी इच्छा की भी उत्पत्ति नहीं कर रहा होता।

साधारणतया मन के स्वभाव के विरुद्ध कोई कार्य करें तो वह विद्रोह कर देता है,परेशानियां खड़ी कर देता है, परंतु श्वास पर लगा मन अपने स्वभाव के बिल्कुल विपरीत कार्य कर रहा होता है और उसे इस बात का पता भी नहीं चलता।

विचार-दर्शन

में बैठिए। जो विचार मन में आये, आने दीजिए विचारों को लाना नहीं है, रोकना नहीं है, दबाना नहीं है । केवल दृष्टा बनकर विचारों को चुपचाप देखते जाना है कि मन कैसे एक विचार से दूसरे विचार पर, एक घटना से दूसरी घटना पर घूमता है, पुरानी घटनाओं को दोहराता है, भविष्य की कल्पनाएं करता है ।

आप केवल देखते जाइए। ऐसा भाव लाइए कि आप मन नहीं हैं, आप मन और उसके कार्यों को देख रहे हैं । कुछ दिनों के अभ्यास से ही, जैसे ही आप मन के कार्यों को देखने बैठेंगे, विचार थमने लगेंगे, मन की गति रुकने लगेगी। मन स्थिर होने लगेगा।

विचार-सर्जन

जैसा कि इसके नाम से ही पता चलता है इसमें विचारों को सायास लाया जाता है और फिर उसे दूसरे विचार से हटा दिया जाता है। एक समय में क्योंकि मन में एक ही विचार रह सकता है, इसलिए यह क्रिया थोड़े अभ्यास के बाद विचारों के साथ खिलवाड़ की सी हो जाती है। ध्यान में बैठिए। मन में कोई विचार या विषय लाइए। 5-7 सेकेंड उस पर ध्यान लगाइए, फिर उस विचार को हटा दीजिए। तीसरा विचार लाइए, उसे भी
इसी तरह 5-7 सेकेंड में हटा दीजिए। इसी प्रकार एक के बाद एक विचार मन में लाते जाइए और हटाते जाइए | कुछ क्षण निर्विचार रहिए, जैसे मन विश्राम कर रहा हो, छुट्टी पर हो। अभ्यास प्रतिदिन करें। कुछ दिनों के अभ्यास से आप मन पर अधिक काबू पा सकेंगे। विचार – सर्जन मन को वश में करने का बहुत ही उत्तम साधन है।

विचार-विसर्जन

मन में कोई विचार स्वत: आने दीजिए | उस विचार को हटा दीजिए इसी प्रकार जो-जो विचार मन में आते जाएं उन्हें हटाते जाइए । इसमें विचारों को लाना नहीं है, न ही विचारों को आने से रोकना है | केवल विचारों को हटा देना है । जो विचार अपने-आप आयें उन्हें रुकने नहीं देना, हटा देना है। इसी प्रकार 0-2 मिनट प्रतिदिन अभ्यास करें। इसके अभ्यास से विचार थमते हैं। मन विचारों से शून्य, स्थिर और शांत होता है।

त्राटक

किसी वस्तु पर निश्चल दृष्टि स्थिर करना त्राटक है | त्राटक के कई तरीके हैं । आसन में बैठकर आंखों के सामने, उतनी ही ऊंचाई पर अपने इष्ट देवता का चित्र डेढ़ गज की दूरी पर रख लें या एक लंबे-चौड़े श्वेत कागज पर काला या हरा गोल निशान बना लें। दीपक की लौ का भी सहारा ले सकते हैं। अपने भूमध्य पर या नांसिकाग्र पर दृष्टि टिका सकते हैं। दोनों नेत्रों को पूर्ण खोलकर इष्टदेव पर टकटकी बांधकर, बगैर पलकें झपके,
तब तक देखें जब तक आंखों में आंसू न आ जाएं। आंसू गिरने से पूर्व ही आंखें बंद कर लें। इसी प्रकार बार-बार करते जाएं। दस मिनट तक अभ्यास करें | त्राटक से नेत्र के रोग दूर होते हैं, मन को एकाग्र करने का भी यह अद्वितीय साधन है।

ध्वनि-योग

का अभ्यास बार-बार करें । ध्वनि की गति एक समान हो । स्वर में मधुरता हो । अपनी ध्वनि को ध्यान से सुनिए। पूरी श्रवणशक्ति को उस आवाज पर केंद्रित कीजिए। नित्य अभ्यास कीजिए। इस साधना के लिए यदि कोई ऐसा स्थान चुनें जहां आप द्वारा उच्चारित शब्द गूंजे, तो आपको जल्दी लाभ हो सकता है।

आप इस क्रिया को गले से आवाज निकाले बगैर भी कर सकते हैं। बगैर आवाज निकाले ‘ ओ3म्‌’ का उच्चारण और ध्यान देकर उसे सुनने का प्रयास कीजिए | इसके अभ्यास से मन ध्वनि में डूबने लगता है और जल्दी एकाग्र होता है।

अजपा-जप

मन-ही-मन किसी मंत्र का जप करें । फिर उस मंत्र को श्वास क्रिया के साथ मिलाकर जप करें। जप मुंह से बोलकर नहीं, मन-ही-मन करना है। हर श्वास के साथ मंत्र को मिलाना है। श्वास और मन एक ही डोरी में बांधने हैं। जैसे ॐ के साथ श्वास लेना ॐ के साथ श्वास छोड़ना। सोsहम्‌ के जप में ‘सो ‘ से श्वास लेना ‘हम्‌’ से श्वास छोड़ना। हम इस उच्चारण के स्थान पर यदि ‘हं ‘ यह ध्वनि निकालें और भ्रामरी प्राणायाम की तरह
गूंज पैदा करें तो चमत्कारिक लाभ पहुंच सकता है

‘ॐ नम: शिवाय ‘में ‘ॐ नम: से श्वास लेना ‘शिवाय’ के साथ श्वास छोड़ना। पूरी चेतना श्वास और मंत्र के साथ रहे। श्वास स्थिर होगा, तो साथ ही मन भी स्थिर होगां। जिस समय भी मानसिक तनाव हो, काम, क्रोध आदि की मात्रा कितनी भी बढ़ी हो, श्वास क्रिया के साथ मंत्र का जप करने से चंद मिनट में ही मानसिक तनाव दूर हो जाएगा। काम-क्रोध आदि से आप छुटकारा पा लेंगे। अजपा-जप मन को शांत करने का बहुत ही सरल उपाय है।

चक्रों पर ध्यान

सृष्टि सतत्‌ प्रवाह की कहानी है । उत्पत्ति और लय का खेल इसमें सदैव चलता रहता है।जीवन इन दोनों ही घटनाओं के बीच का अंतराल है । जन्म से मृत्यु के बीच का जीवन और मृत्यु से जन्म के बीच का जीवन। यदि और भी गहरे में सोचें तो क्योंकि जन्म और मृत्यु सापेक्ष हैं, एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं, इसलिए जीवन को मृत्यु और जन्म से परे की सच्चाई भी कहा जा सकता है।

इस प्रकार जीवन शाश्वत है, कभी समाप्त नहीं होता। यह चक्र ही सृष्टि का शाश्वत नियम, है। यह एक परम सिद्धांत है। लेकिन व्यावहारिक रूप से यदि जीवन की इन घटनाओं को देखें, तो सृष्टि की उत्पति सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है। इसी को भारतीय दर्शन व्यक्त होना कहते हैं | इसमें जो था, पर दीख नहीं रहा था, दीखने लगता है । और लय स्थूल से सूक्ष्म की ओर की यात्रा है ।’ दर्शन’ के शब्दों में यह व्यक्त का अव्यक्त होना है अर्थात्‌ जो दिख रहा था, वह इस प्रक्रिया में दृष्टि से परे चला जाता है । समझने के लिए बीज का उदाहरण लेते हैं ।बीज सूक्ष्म है। धरती में डालने पर एक विशेष प्रक्रिया से गुजरता हुआ बह विशाल वृक्ष का रूप ले लेता है और फिर अनेक बीजों का ‘कारण’ बनता है। बिलकुल ऐसे ही मानव शुक्राणु तथा डिंब के रूप में, गर्भ में नौ महीने के भीतर बीज से एक रूप लेता है और जन्म लेता है। जीवन धीरे-धीरे विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता हुआ आखिर में अनंत में समा जाता है।

उपरोक्त विश्लेषण का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि साधक को विकास के लिए स्थूल से सूक्ष्म का सहारा लेना पड़ता है। इसी को ‘चंद्रशाखा न्याय” कहते हैं–सृक्ष्म चंद्र को देखने के लिए स्थूल वृक्षशाखा का सहारा । शरीर-रचना के प्रकरण में पहले यह स्पष्ट किया जाचुका है कि पंच महाभूतों से, एक निश्चित क्रम में, सृष्टि की उत्पत्ति होती है–आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी। यह क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर का क्रम है। अब यदि विलय की प्रक्रिया को दोहरायें, तो उसमें सारा क्रम उल्टा हो जाएगा अर्थात्‌ पृथ्वी से जल, जल से अग्नि, अग्नि से वायु और वायु से आकाश। योग ग्रंथों में शरीर-रचना के क्रम में इन पंचमहाभूतों का संबंध शरीर में स्थित षड्चक्रों से भी स्वीकार किया गया है। इन संबंधों को समझाने के लिए आगे चक्र विवरणी दी जा रही है।

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