Friday, May 14, 2021

मन का स्वभाव जानें

 किसी एक विषय पर टिके रहना मन को पसंद नहीं, जब इसे किसी एक वस्तु या विषय पर लगाया जाता है, तो यह भागकर दूसरे विचारों या विषयों पर चला जाता है ।बेकार के विचारों में पड़ जाता है । हर दिशा में घूमता है, बेलगाम घोड़े की भांति हर ओर भागता फिरता है। किसी एक विषय पर टिकना इसका स्वभाव नहीं।

मनको एकांत पसंद नहीं ।इसे तो देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्श करना अर्थात्‌ सभी इंद्रियों के विषय इसे पसंद हैं। इसके लिए कोई साथी, कोई सामान चाहिए ही।

मन बहुत गतिशील है । प्रकाश (Light) की गति तो ,86,000 मील प्रति सैकेंड है, पर मन की गति तो नापी नहीं जा सकती, इसको हर समय गति चाहिए।

मन वर्तमान में रहना नहीं चाहता, अब क्या हो रहा है, इस बात में इसकी रुचि नहीं । इसे तो भूतकाल और भविष्य ही पसंद हैं। आज और अब जो हो रहा है, उसमें तो वह सीमा में बंध गया जबकि बंदिश में रहना मन का स्वभाव नहीं । वर्तमान में तो इसका दम घुटता है, भूत और भविष्य में घूमने को तो बहुत स्थान हैं । क्योंकि ध्यान मन को एक दायरे में बांधता है, उसे दिशा दे देता है इसीलिए ध्यान वर्तमान में रहने की कला है।

मन इच्छाओं की उत्पत्ति करता है और यह काम हर समय होता रहता है। एक इच्छा पूरी हुई तो उसने अनेक इच्छाओं को जन्म दिया। इच्छाएं अनंत हैं और उनकी पूर्ति होना असंभव है । इच्छाओं की पूर्ति न होना या उनका दबाया जाना ही तरह-तरह के क्लेशों व दुखों का कारण बनता है।

मनुष्य के सुख-दुख का कारण मन व उसकी वृत्तियां हैं। किसी भी वस्तु का अच्छा या बुरा लगना मन की मान्यता के कारण ही है । मन झानेंद्रियों द्वारा ही बाह्य जगत की वस्तुओं व विषयों का आनंद लेता है । ज्ञानेंद्रियां पांच है – आंख, कान, नाक, रसना व त्वचा | उनके विषय देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद चखना, बोलना और छूना हैं | मन इंद्रियों के विषयों के रस लेता है। योग में मन को जीतने के लिए पहले इंद्रियों को साधन बनाते हैं, फिर मन को । इस प्रकार मन से ही मन को वश में करते हैं, जैसे कि कांटे से कांटा निकाला जाता है।

मन को साधने के लिए पूजा, कीर्तन, जप, हवन, यज्ञ, ज्ञान, कर्म, तप आदि बहुत साधन हैं, पर ध्यान इन सबमें श्रेष्ठ है। मन को साधना बहुत कठिन माना जाता है। कुछ दिनों में ही सफलता मिल जाए ऐसी बात नहीं । लगातार अभ्यास, बैराग्य व पक्के इरादे से इसे बड़ी आसानी से साधा जाता है । ध्यान मन की चाबी है। जितना ध्यान परिपक्व होता जाता है, उतनी ही मन की सफाई होती है। मन की परतें खुलती जाती हैं, मन के संस्कार धुलते जाते हैं और मन निर्मल बनता है। मनोविज्ञान के अचेतन मन (Unconcious mind), अवचेतन मन (Sub-Unconcious mind), चेतन मन (Concious mind) से ही ऊर्ध्वचेतन मन (Super-Unconcious mind) का विकास होता है।

ध्यान मन की शक्तियों को बरबाद होने से बचाता है, परेशान व अशांत मन को शांत करता है। इससे मन की एकाग्रता बढ़ती है। ध्यान से मन की उछल-कूद खत्म होती है, दौड़ बंद होती है। मन को विश्राम मिलता है ध्यान मन व बुद्धि की सोयी हुई शक्तियों को जगाता है। ध्यान की क्रिया बिलकुल वैसी है, जैसी कि एक विशेष तरह के शीशे की | आतिशी शीशा सूरज की बिखरी किरणों को एक ऐसी विशेष दिशा देता है, जिससे उसके सामने रखा-कपड़ा या कागज आदि वस्तुएं जलने लगती हैं | किरणें थीं पर केंद्रित नहीं थीं – बिखरी हुईं थीं। आतिशी शीशे ने उन किरणों को केंद्रित करके एक विशेष गुण से संपन्न बना दिया

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